हरिशंकर व्यास
भारतीय जनता पार्टी लंबे समय तक यथास्थितिवादी पार्टी मानी थी लेकिन अब वह वैचारिक स्तर पर अपने यथास्थितिवाद के बावजूद एक डिसरप्टिव फोर्स के तौर पर उभर रही है। वह राजनीति के मौजूदा ढांचे को बदल रही है। भारत में जिस राजनीतिक ढर्रे को सहज रूप से स्वीकार किया गया था उसे वह बदल रही है या बदलने का प्रयास कर रही है। दशकों से जो पार्टियां लोगों के दिल-दिमाग में बैठी हैं उनको खत्म कर रही है और उनकी जगह नई व्यवस्था बनाने की कोशिश कर रही है। पर इसके बड़े खतरे हैं। यह शेर की सवारी की तरह है। अगर गिरे तो खतरा है कि शेर खा जाएगा। ऐसा नहीं है कि देश में जो स्वीकार्य राजनीतिक ढांचा है वह बहुत अच्छा है इसलिए उसमें बदलाव नहीं होना चाहिए। उसमें कई चीजें खराब हैं लेकिन उन्हें बदलने से पहले वैकल्पिक व्यवस्था बनानी होगी।
भाजपा ने भाषा का विवाद शुरू किया लेकिन यह बिना किसी तैयारी के किया गया। एक तो आर्थिक कारणों से, जीएसटी की वजह से, 15वें वित्त आयोग की सिफारिशों की वजह से और कई अन्य कारणों से दक्षिण भारत के देश अपने को अलग-थलग महसूस कर रहे थे। वे अपना एक संघ बना रहे थे और उनके वित्त मंत्रियों की बैठकें हो रही थीं। ऐसे में भाषा का विवाद शुरू हो गया। अगर इस मामले में बहुत सोच-समझ कर कदम नहीं उठाया गया तो आने वाले दिनों में भारत की एकत और अखंडता के लिए बड़ी चुनौती पैदा होगी। इसी तरह हिंदू-मुस्लिम की जो ऐतिहासिक ग्रंथि है वह एक न एक दिन फूटने वाली थी और तब देश में आंतरिक संघर्ष होता लेकिन ऐसा लग रहा है कि भाजपा हिंदू वोटों की राजनीति में उस प्रक्रिया को फास्ट फॉरवर्ड कर रही है। जो काम दो-चार दशक बाद होता उसके लिए पहले ही आधार तैयार किया जा रहा है। लेकिन वह भी बिना तैयारी के है। उसमें भी भाजपा के पास कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं है कि वह कैसे हालात को संभालेगी। भाजपा के नेता जिस कट्टरपंथी राजनीति को आगे बढ़ा रहे हैं उसके भडक़ने पर सुरक्षा या उसे संभालने की क्या व्यवस्था है, वह किसी को पता नहीं है। ऐसा लग रहा है कि बिना किसी तैयारी के भाजपा देश और समाज को संकट में डाल रही है।
भारतीय जनता पार्टी के नेता इस बात का जश्न मना रहे हैं कि पंजाब में शिरोमणि अकाली दल बहुत कमजोर हो गई है। हाल में संगरूर लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव के नतीजों पर भाजपा के नेता इस बात की खुशी मना रहे हैं कि उनके उम्मीदवार को अकाली दल से ज्यादा वोट मिले। भाजपा का उम्मीदवार चौथे स्थान पर रहा, जबकि अकाली दल का उम्मीदवार पांचवे स्थान पर रहा। भाजपा के लिए भले यह जश्न की बात हो लेकिन देश के लिए चिंता की बात यह है कि अकाली दल के कमजोर होने के साथ ही कट्टरपंथी संगठन मजबूत हो गए हैं और संगरूर सीट पर अकाली दल अमृतसर के नेता सिमरनजीत सिंह मान जीत गए, जिन्होंने जीतने के बाद कहा कि यह संत जनरैल सिंह भिंडरावाले की शिक्षा का नतीजा है। उन्होंने अपना चुनाव ही गुरु ग्रंथ साहिब के बेअदबी के मुद्दे पर लड़ा था। सोचें, एक तरफ ग्रंथ साहिब की बेअदबी को मुद्दा बना कर सिख कट्टरपंथी नेता जीत रहा है तो दूसरी ओर पैगंबर की बेअदबी का मुद्दा बना कर मुस्लिम कट्टरपंथी किसी का गला काट रहे हैं। बिना सोचे-समझे और बिना वैकल्पिक व्यवस्था बनाए मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था का ढांचा नष्ट करने का प्रयास देश के लिए बहुत घातक हो सकता है।
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